हनुमान चालीसा हिन्दू धर्म में संकट के समय का सबसे प्रभावशाली स्तोत्र माना जाता है। इसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी, जिसमें श्रीराम के महान भक्त हनुमान जी के गुणों, कार्यों और उपकारों का सुंदर वर्णन है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हनुमान चालीसा की शुरुआत हमेशा “श्री गुरु चरण सरोज रज…” से ही क्यों होती है? इसके पीछे एक गूढ़ रहस्य और गहरी आध्यात्मिक भावना छिपी है।
“श्री गुरु चरण सरोज रज…” – इसका अर्थ और महत्व:यह दोहा हनुमान चालीसा का मंगलाचरण है, जिसमें तुलसीदास जी अपने गुरु के चरणों की धूल को प्रणाम करते हैं और कहते हैं कि उस पवित्र धूल से वह अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ कर भगवान श्रीराम के पवित्र यश का वर्णन करने जा रहे हैं।यह दोहा बताता है कि बिना गुरु की कृपा के ईश्वर की भक्ति और ज्ञान अधूरा है।
काशी के ज्योतिषाचार्य पं. रत्नेश त्रिपाठी के अनुसार, जब तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा की रचना शुरू की, तो वह बार-बार लिखते लेकिन अगले दिन तक चालीसा अपने आप मिट जाती थी।
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इस समस्या से परेशान होकर तुलसीदास जी ने हनुमान जी की आराधना की।
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जब हनुमान जी प्रकट हुए तो उन्होंने कहा,“मेरे गुणगान से पहले मेरे प्रभु श्रीराम का गुणगान करो।”
तुलसीदास जी ने तब वह दोहा पढ़ा –“श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊ रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि॥”
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इस पर हनुमान जी ने कहा, “मैं रघुवर नहीं हूं।”
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तब तुलसीदास जी ने सुंदर तर्क दिया:“जब अशोक वाटिका में माता सीता ने आपको पुत्र रूप में स्वीकार किया, तब आप भी रघुवंश का हिस्सा बन गए। इसलिए आप भी रघुवर हैं।”
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तुलसीदास जी के इस उत्तर से हनुमान जी प्रसन्न हो गए और आत्मज्ञान को प्राप्त किया।
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इसके बाद हनुमान चालीसा की रचना बिना किसी विघ्न के संपन्न हुई।
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यह कथा दर्शाती है कि गुरु की महिमा, प्रभु श्रीराम की आराधना और भक्त की श्रद्धा से बड़ा कोई मार्ग नहीं होता।
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हनुमान चालीसा केवल स्तुति नहीं, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव है जिसमें गुरु, भक्ति और आत्मज्ञान तीनों का संगम है।
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