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छठ पूजा : एक ज्योतिषीय एवं आध्यात्मिक संवाद

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भारतीय संस्कृति में छठ पूजा एक साधारण पर्व नहीं है, बल्कि अनादि-अनंत सूर्योपासना का जीवंत अनुष्ठान है, जहाँ आत्मा, प्रकृति और ब्रह्मांड के भीतर उच्च चेतना का गहन संवाद घटित होता है। यह केवल उसके जल-प्रणाम, गीतों या सांस्कृतिक रस्मों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि छठ का सत्य उपासना के उसी उत्साह में विस्तार पाता है, जिसमें जीवन का मूल मंत्र नूर, प्रकाश और आत्मविकास है। आदिकाल से ही सूर्य भारतीय चेतना के सबसे उज्ज्वल केंद्र में प्रतिष्ठित है; उसका उगना और डूबना न केवल प्रकृति की रोजमर्रा की लीला, बल्कि अंतर्यात्रा के सोपानों का स्थापत्य बन जाता है।

छठ महापर्व में परंपरा, श्रद्धा, ज्योतिष और आत्मसंवाद परस्पर गुँथ जाते हैं। ऋग्वेद की आदित्य स्तुतियों से लेकर उपनिषदों के आत्मज्योति के आख्यान तक, छठ पूजा भारतीय मानस के भीतर जीवन, धर्म, विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संगम रचती है। यहाँ सूर्य की पूजा मात्र बाह्य क्रिया नहीं, बल्कि अंतर्जगत की ऊर्जा-साधना है, मानव चेतना की खोल को हटाने, उसमें नई ज्योति और जीवन-संतुलन जगाने का पर्व।

सूर्य उपासना का वैदिक और ज्योतिषीय सार
सूर्य को वैदिक ग्रंथों में “सर्वेषां जीवनप्रदाता” कहा गया है; उसके उगते-डूबते स्वरूपों में विश्व की गति, जीव-जगत का नियामक और जीवन-प्रवाह का रहस्य गर्भित है। ऋग्वेद की दृष्टि में सूर्य न केवल प्रकाश का देवता, बल्कि दिव्यता, अमृत और जीवनशक्ति का अंश है। अथर्ववेद में उसकी रश्मियाँ अमृतमयी कही गईं हैं—यही अमृत, छठ के उपवास और अर्घ्य में साधक को आंतरिक पोषण देकर आध्यात्मिक नवोत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है।

ज्योतिष के अनुसार सूर्य आत्मा का कारक, आत्मविश्वास का संचारक और धर्म-अनुशासन का प्रकाश है। उसकी बारह राशियों में गति केवल खगोलीय घटना नहीं; यह प्रतिपल हमारे भीतर चेतना की अवस्था, नेतृत्व की क्षमता, पितृबोध, और आत्मबल की तरंगों को संचालित करती है। सूर्य का नीचस्थ होना हमें भीतर से क्षीण बनाता है, जबकि उसका उत्कर्ष संक्रमण, ज्योतिषीय दृष्टि से, खासतौर पर छठ के मर्म में, हमारी सुप्त शक्ति को प्रवाहित करता है।

छठ पूजा का ज्योतिषीय आयाम
छठ के व्रत में अस्ताचलगामी और उदयाचलगामी सूर्य के अर्घ्य का चयन स्पष्ट रूप से ज्योतिषीय है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी के कालखंड में सूर्य तुला से वृश्चिक राशियों के संक्रमण की ओर प्रयाण करता है। तुला-सूर्य नीचस्थ होता है, जिससे व्यक्ति में आत्मबल, मनोबल और तेज में शिथिलता आ सकती है। छठ की अवधि में, साधक अपने भक्तिपूर्ण अर्घ्य से सूर्य के उस नीचत्व को तेज में बदल देता है—यह निष्क्रियता से सक्रियता, अंधकार से प्रकाश, और अवरोध से उत्कर्ष की यात्रा है।
इस समय सूर्य उत्तरायण की दिशा लेने के लिए व्याकुल होता है, जो स्वयं ज्योतिषीय रूप में जीवन के उन्नयन, आत्मशुद्धि और ग्रहदोष शमन का संकेत है। छठ के पूजन में, जल-अर्घ्य बाह्य सूर्य को ही नहीं, बल्कि भीतर के “अन्तःस्थ सूर्य” को जागृत करने की दिव्य प्रक्रिया है। जल, चित्त का दर्पण माना गया है; उसमें सूर्य का प्रतिबिंब जब साधक देखता है, वह आत्मसाक्षात्कार की वैज्ञानिक क्रिया में प्रवेश करता है, यह तंत्र, योग और ज्योतिष की ऊँची साधना है। यहाँ दो क्षण—अस्त और उदय सूर्य, के अर्घ्य जीवन के दो सत्य हैं : क्षय को स्वीकारना और नवोत्थान का स्वागत।

व्रत, उपवास और आत्मसंपर्क
छठ व्रत का नियम अत्यंत कठोर है : निर्जल उपवास, केवल प्रभु-समीपता की साधना। “उपवास” का अर्थ केवल शरीर-कष्ट नहीं, बल्कि “उप” यानी समीप और “वास” यानी निवास—अर्थात् परम की शरण में, आत्मा के समीप रहना। यह तप, संयम और आत्मानुशासन का शिखर है। ज्योतिष कहता है कि षष्ठी तिथि पर चंद्रमा का प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म होता है, जिससे व्रती के मन, आत्मबल और चित्त की शुद्धि होती है। छठ में चंद्रमा और सूर्य की लगभग 90 डिग्री दूरी का संतुलन साधना को विशेष फलदायी बनाता है।

सूर्य, सप्ताश्व और ग्रहों का संतुलन
ऋग्वेद में सूर्य को “सप्ताश्व” सात अश्वों के रथ पर सवार कहा गया है। इसे ज्योतिष में सप्त ग्रहों का प्रतीक माना गया : चंद्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि और स्वयं सूर्य। जब साधक सूर्य का अर्घ्य देता है, तो वह इन सातों ग्रहों की ऊर्जा को संतुलित करता है। यह प्रकृति, शरीर और ब्रह्मांड के ग्रहों का संतुलन साधना है, जिसमें छठ पर्व प्राकृतिक-अंतर्यात्रा, कर्म शुद्धि और ग्रह शांति की कुंजी बन जाता है।

संधि-क्षण की साधना
छठ में, सूर्योदय और सूर्यास्त के संधिक्षणों में अर्घ्य दिया जाता है। यही वे क्षण हैं जहाँ ज्योतिषीय ऊर्जा सबसे ऊर्जावान, सबसे संतुलित और सबसे सशक्त होती है। छठ में संधि-क्षण की साधना आत्म-चेतना की शुद्धि और ग्रह-दोषों की शांति के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। इन क्षणों में जो अर्घ्य, साधना और ध्यान किया जाए, उसका फल अनेक गुना बढ़ जाता है।

जल, सूर्य और पंचतत्व का समन्वय
छठ पूजा का प्रमुख अनुष्ठान जल-साधन है, नदी, सरोवर या तालाब में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना। यह केवल आस्था नहीं, बल्कि पंचमहाभूतों की ऊर्जा-विज्ञान का नियमन भी है : जल, चंद्रमा का तत्व है; सूर्य अग्नि-तत्व। जब अग्नि और जल की ऊर्जा का मिलन होता है, तो शरीर, मन और ब्रह्मांड में संतुलन, शांति और नवचेतना का संचार होता है। छठ का जल-अर्घ्य मानसिक शांति, आरोग्य और जीवन-संतुलन की वैज्ञानिक नीति है।

स्त्रियों का अद्भुत योगदान
छठ व्रत मुख्यतः गृहिणियों और माताओं द्वारा किया जाता है—, संतति, परिवार और कुल-वृत्ति की समृद्धि हेतु। ज्योतिष में, स्त्री और चंद्रमा का संबंध अत्यंत गहन माना गया है। जब स्त्री सूर्य की साधना में प्रवृत्त होती है, तो वह मन और आत्मा का अलौकिक समन्वय स्थापित करती है; यही चंद्र-सूर्य का देव-संयोग है, जिसमें परिवार, संतान और समाज की स्थिरता, दीर्घायु और समृद्धि की नींव पड़ती है।

छठ : आत्मशांति, ग्रहशांति और ब्रह्मांडीय मिलन
छठ पूजा, सूर्योपासना का महापर्व, हमें मानव जीवन की संपूर्णता बाह्य साधनों से परे, अंतर्यात्रा, आत्मयोनि, ज्योतिर्मयी चेतना का सही अर्थ समझाता है। पूजा के दौरान जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना, मानो आत्मा स्वयं को उस ब्रह्मांडीय स्रोत में विसर्जित कर दे, जिससे जीवन के सारे रंग, स्वरूप और ऊर्जा फूटती है। ज्योतिष कहता है : सूर्य आत्मा है, चंद्रमा मन है, शेष ग्रह कर्म, भाग्य और चेतना के नियामक हैं।

वास्तव में, छठ पूजा बाहरी सूर्य की स्तुति नहीं, बल्कि आत्मज्योति के प्रज्वलन, चित्त शुद्धि और ब्रह्मांडीय ऊर्जा के संतुलन की युक्ति है। जब आत्मा ज्योतिर्मय हो जाती है, तो भाग्य और जीवन स्वयं चमक उठते हैं। छठ पर्व यह स्मरण कराता है कि जीवन का यथार्थ उत्कर्ष आत्मविज्ञान, शुद्धि और साधना से ही संभव है, बाहरी उजास से नहीं, बल्कि आत्मा के ब्रह्म में विलीन होने से। यही है छठ पूजा का वास्तविक रहस्य, प्रकाश का उत्सव, अंधकार का विसर्जन, आत्मा का ब्रह्म से मिलन, और सम्पूर्ण जीवन के हर पहलू में संतुलन की स्थापना।
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